कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
हत्यारे
नारियल के बिखरे वृक्ष, तपती रेत और दूर धुंधली-सी क्षितिज-रेखा तक फैला अंतहीन सागर।
गर्म बालू में ज्यों ही पांव धंसते हैं, तलुओं में अजीब-सी किरकिराहट होती है। सूरज के ठीक माथे पर चमकने पर भी हवा में कहीं तनिक उमस नहीं। समुद्र की ओर से आते, सनसनाती हुई ठंडी वायु के झोंके बहुत सुखद लग रहे हैं।
जमीन का अंतिम टुकड़ा जहां सागर में धंसता है, वहां खड़ा होने पर, एक विचित्र-सी अनुभूति का अहसास होता है-इसके बाद सागर ही सागर ! जल ही जल !
मैं चलता-चलता तीन ओर से समुद्र में डूबी एक चट्टान पर, एकांत में बैठ जाता हूं। चट्टान ठीक हाथी की पीठ जैसी है—खुरदरी, काली, वैसी ही चारों ओर को ढलान। बीच चट्टान में लाल रंग की लक्ष्मण रेखा-सी खिंची है। इससे आगे बढ़ने का अर्थ है-खतरा ! किसी भी क्षण सागर की उफनती हुई लहरें अपने साथ बहाकर ले जा सकती हैं।
लाल रेखा पर चप्पलें उतारकर, मैं कुछ क़दम आगे बढ़ता हूं-हल्की ढलान की तरफ। सागर की ऊंची-ऊंची लहरें कुछ क्षणों के अंतराल के पश्चात इस इस्पाती चट्टान से टकराती रहती हैं।
पहले एक भयंकर गर्जन होता है। और फिर कुछ ही क्षणांश में लहरें टूट-टूटकर, चूर-चूर होकर, कण-कण में बिखरने लगती हैं-दूध का जैसा सफेद झाग चट्टान से नीचे उतरने लगता है।
खतरे की लाल सीमा-रेखा से आगे आने पर भी मुझे भय क्यों नहीं लगता ! मैं पीठ के बल निश्चिंत भाव से लेट जाता हूं। सामने की ओर देखता हूं, जहां मछुआरों की छोटी-छोटी काली पालदार नावें काले-काले बिंदुओं की शक्ल में बदल रही हैं। क्षितिज की सीमा-रेखा के उस पार पेंसिल से खिंचा एक धूमिल-सा रेखाचित्र उभरने लगता है। धीरे-धीरे उसका आकार बड़ा होता चला जाता है, और वह स्टीमर की शक्ल में बदल जाता है। ज्यों ही वह कुछ आगे बढ़ता है, एक दूसरा रेखाचित्र आकार लेने लगता है, फिर तीसरा। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर तीनों एक क़तार में तैरते, पास आते दिखाई देने लगते हैं।
यहां पर लेटे अभी कुछ ही क्षण बीतते हैं, पीछे से शोरगुल सुनाई देता है।
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